25 September 2010

आपा जी - अब्बा जी बनाम मम्मी- पापा!!!

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासी बहूल थांदला कस्बे में मेरा जन्म हुआ था और उसके बाद सिंचाई विभाग (अब जल संसाधन विभाग) में कार्यरत मेरे पापा का तबादला पेटलावद हो गया था .मुझसे दो बड़े भाई हैं और मेरे बाद एक छोटी बहन है, उसी के इन्तजार में मेरा जन्म हुआ . अगर वो पहले आ जाती, तो मेरे पैदा होने की कोई ज़रुरत नहीं रह जाती.

खैर, मैं जन्म से ही बहूत हष्ट-पुष्ट  था लेकिन मेरा पेट हमेशा ख़राब रहता था, ऐसा मम्मी कहती है. मेरे काका साहेब उस वक्त शायद पेटलावद या आसपास के किसी शहर के एस डी एम थे और मुझे 'कद्दू' कहते थे. इन दोनों भाइयों का परिवार रहता पेटलावद में ही था, साथ में.

एक और परिवार था, जिससे हमारे परिवार का घरोपा था और वो था 'बाबर साब', क्षमाँ करें, अब्बाजी का परिवार. इनसे पहचान की वजह यह थी कि ये भी हमारे 'होम टाउन' नीमच के ही रहने वाले थे. इसलिए जानपहचान पुरानी थी. 

ना तो ये कहानी हिन्दू- मुसलमान की है, न ऊपर वर्णित किसी चरित्र की, ये तो बस याद है 'आपा जी' की  जो 'बाबर साब', सॉरी, अब्बाजी ( उन्हें नाम से पुकारने पर मेरी मम्मी डांटती है) की पत्नी और नूरूद्दीन, एहसान, और  दो और भाई-बहन की अम्मी थी.


पेट में कीड़ों और दर्द की वजह से मैं बहूत रोता था, और मेरे रोने पर 'आपा जी' मुझे गोद में लेकर क़लमा पढ़ा करती थी. पूरा परिवार मुझे चुप करने की कोशिश कर ले, लेकिन मेरे रोने की आवाज़ सुनकर आपाजी अपने घर से आती, मुझे गोद में लेती और मैं चुप हो जाता. आपा जी और अब्बा जी   दोनों की ज़बान हमेशा लाल रहती थी, मूंह में हमेशा पान रहता था, अब्बाजी सफ़ेद कुर्ता- पायजामा पहनते थे और आपाजी सलवार -कुर्ता. मेरी मम्मी साडी और कभी-कभी कुर्ती कांचली पहनती है और पापा पेंट शर्ट. पापा उस वक्त कभी-कभी पान भी खा लेते थे. मेरी नज़रों में वो परिवार मुसलमान और मेरे मम्मी-पापा हिन्दू इसीलिए थे क्योंकि इनके लिबासों में फर्क था और अब्बाजी के बाल मेहँदी से रंगे थे. थोड़ा बड़ा होने पर भी इससे ज्यादा मुझे पता नहीं था.

आपाजी आये दिन 'स्टील' की प्लेट पर कपड़ा ढँक कर हमारे यहाँ गूंजे, सेवई और रंग बिरंगे पकवान दे जाती थी, वो प्लेट लौटाने के लिए मैं  उनके यहाँ जाता था और आपाजी मुझे खूब खिला-पिलाकर वापस छोड़ने आती. मैं बाहर खेला करता और उनके बड़े बच्चे मुझे यहाँ-वहाँ घूमा कर फिर घर छोड़ देते. मेरे भाइयों की उनसे अच्छी दोस्ती थी. एक दिन मैंने अब्बाजी के घर में एक बकरे को बंधा देखा. मैं खुश हो गया ! थोडा डरते हुए मैंने उससे दोस्ती की और उसे हाथ लगाना शुरू किया. वह मुझे भीट मारता रहा, मिमियाता रहा और मेरे एक-दो दिन उसके साथ अच्छे गुज़रे.

उस दिन सुबह-सुबह उठ कर बाहर गया, अरे! बकरा कहाँ  गया? अब्बा जी, आपा, मम्मी-पापा कोई बताने को तैयार नहीं कि बकरा गया कहाँ ?.. .वो  तो नूरूद्दीन भाई साहेब ने बताया कि आज मीट बनेगा ना!! मुझे मीट बनाने की विधि पता चली और बस...फिर तो कोहराम मच गया!! मेरे मम्मी-पापा, अब्बाजी-आपाजी और उनके बच्चे, ये सब एक तरफ और मैं अकेला एक तरफ, जैसे दंगा हो गया.... रो-रो कर मैं सब पर भारी पड़ गया. उस दिन, फिर क्या हुआ... मुझे किसी ने खबर नहीं लगने दी. 

अगली बार भी अब्बाजी ने डरते-डरते उसी जगह बकरा बाँधा, मुझे बहूत बुरा लगा, मैंने बकरे से न दोस्ती की और न ही उन दिनों आपाजी से मिलने गया. बाकी सब वैसा ही चलता रहा. 

दो-एक साल बाद की बात है, आपाजी ने मुझे खाना परोसा. मैंने खूब सूत के खाना खाया, लेकिन आपाजी ने आखिर तक नहीं बताया कि सब्जी काहे की थी. एहसान भैय्या मुझे इशारे कर रहे थे, मुझे उम्मीद थी कि वो ज़रूर बताएंगे और उन्होंने ही मुझे बताया कि तुझे आज अम्मी ने मीट खिलाया है! बस.  ये सुनना था कि मेरा ह्रदय परिवर्तन हो गया. मैंने खामखा आपा जी पर इतना गुस्सा किया, मीट भी क्या चीज होती है!  मेरे दिल से उनके लिए नफ़रत हमेशा के लिए निकल गयी. अब मैं इंतज़ार करने लगा, कब बकरा बंधेगा और कब मीट मिलेगा. दोनों परिवारों की एक बड़ी समस्या का हल हो गया था.

धीरे-धीरे मैं बड़ा हो गया. हम लोग नीमच शिफ्ट हो गए. मैंने पढाई भी वहीं  पूरी की. अब्बाजी भी रिटायर होने के बाद परिवार सहित नीमच आ गए थे. मेरे कई और मुस्लिम दोस्त बने जो आज तक हैं. हम उस वक्त  भी साथ  थे जब कई सालों पहले नीमच में दंगों की वजह से कर्फ्यू लगा था, हम उस वक्त भी साथ थे जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस की ख़बरें पढ़ी थी, हम मुंबई बम धमाकों की ख़बर आने के बाद भी साथ थे.
आज तक स्कूल, कॉलेज, खेल, चुनावों और मोहल्लो में कई बार मेरा झगड़ा हुआ, लेकिन आज तक किसी मुसलमान ने मुझ पर हाथ नहीं उठाया और न ही मैंने किसी मुसलमान को चांटा मारा है. आज तक किसी ने भी मुझसे इसलिए तो झगड़ा नहीं किया कि मैं हिन्दू हूँ और न ही मैं आज तक कहीं इसलिए लड़ने गया कि सामने वाला मुसलमान है. 

अखबारों और न्यूज़ चेनल्स पर दंगों और द्वेष की खबरें देख पढ़ कर कई बार भड़क जाता हूँ, पर बदला किससे लें, मारें किसे और क्यों!! ये सारे तो मेरी पहचान के हैं, मेरे दोस्त हैं!!!                                                                   
             

      

                   

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सौहार्द को बाताती अच्छी पोस्ट

वीना श्रीवास्तव said...

आपसी सामंजस्य और मित्रता दर्शाती पोस्ट...सच तो यही है कि आपस में कोई लड़ना नहीं चाहता लड़ाने वाले तो कोई और ही हैं....

वीना श्रीवास्तव said...

आपसी सामंजस्य और मित्रता दर्शाती पोस्ट...सच तो यही है कि आपस में कोई लड़ना नहीं चाहता लड़ाने वाले तो कोई और ही हैं....

संजय @ मो सम कौन... said...

सब तरफ़ ऐसा ही भाईचारा हो जाये तो कितना बेहतर हो।
नई नई पहचान है हमारी, फ़िर भी कहता हूँ। आपकी बातों से बहुत हद तक सहमत हूँ। मेरे खुद के भी कई ऐसे दोस्त हैं, लेकिन अपना अनुभव यह है कि व्यक्तिगत स्तर तक निभाने में कोई दिक्कत नहीं आती, मगर जब देश या समाज की बात आती है तो अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकतर लोगों के लिये वरीयता क्रम बदल जाता है।
शुभकामनायें।