04 January 2011

“ग़ुज़ारिश-सौ ग्राम जिंदगी”

 ज़ी सिने अवार्ड्स के नोमीनेशंस देख कर मन को बड़ा आघात लगा. एक तो संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गुज़ारिश' का नाम 'बेस्ट फिल्म' केटेगरी में दिखायी नहीं दिया, वहीं दूसरी और साजिद खान का नाम फिल्म 'हाउसफुल' के लिए 'बेस्ट डिरेक्टर' की श्रेणी में शामिल किया गया है...सा'जिद्ध' की फिल्म 'हाउसफुल' और उसके निर्देशन में क्या क्या कमियां है ये देखने के बजाये, इस पर बात करना बेहतर है की 'गुज़ारिश' को 'सर्वश्रेष्ठ फिल्म' की श्रेणी में क्यों शामिल किया जाना चाहिए था?

  - ग़ुज़ारिश वैराग्य और अनुराग की कहानी है या सिर्फ वैराग्य में निहित अनुराग की कहानी या अनुराग से जन्मे वैराग्य की कहानी. शत प्रतिशत सम्भावना है की, जब आप सिनेमा हॉल से बाहर निकले तौ इसे परिभाषित न कर पाएं. लेकिन ये भी उतना ही सही है की, परिभाषित न कर पाने के इस भ्रम को आप आनंद और संतुष्टि के चरम तक महसूस करेंगे.

ये “सौ ग्राम जिन्दगी” है जिसे आप इस फिल्म को सिनेमा हॉल में देखते हुए जीते हैं और थिअटर से बाहर आकर भी तब तक जीते रहते हैं, जब तक जिन्दगी की धुप और रुखी हवा, आपके अन्दर से आल्हादित और भीगे हुए मन को सूखा न दे, लेकिन फिर किसी ताज़ी हवा के झोंके की तरह 'एथेन' का चेहरा आपकी आँखों के सामने आता है और आप फिर भीग जाते हैं. जी हाँ, ये जादू है - संजय लीला भंसाली और उनकी टीम का जादू !!


‘एथेन’- यानि, एक अभिनेता के लिए तो सिर्फ एक मरे हुए शरीर का जीवित चेहरा! इस किरदार के लिए हृतिक रोशन का चुनाव पूरी तरह से असंगत और अजीब लगता है, क्या कोई भी निर्देशक ऐसे किरदार में हृतिक जैसी शख्सियत का पूरा इस्तेमाल कर पायेगा?


गलती हमारी नहीं है. भारतीय सिनेमा के वर्तमान काल में व्यवसाय प्रबंध के स्नातक निर्देशकों की भीड़ सी लगी है और इस भीड़ में कई ऐसे भी हैं जो अपने निर्देशकीय स्वातंत्र्य की आड़ में दर्शको को भ्रमित करके सिनेमा हाल तक तो खिंच लेते हैं पर फिल्म के नाम पर दर्शकों को परदे पर दिखाते हैं ‘ठेंगा’...ऐसे ही भ्रम में ये दर्शक सिर्फ दर्शक न हो कर अपने आप को आलोचक के तौर पर देख रहे हैं, और कई बार ये आलोचक- दर्शक, फिल्म को देखे बगैर, सिर्फ कयास लगा कर ही उसे न देखने का फैसला कर लेते हैं. और ये सिर्फ एक कयास ही है, वरना ‘हृतिक’ के बिना इस किरदार की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी.

वैसे तो कुछ समाचार चैनलों के फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की रिलीज़ के ही दिन हृतिक की असहजता का जिक्र किया था. पर 'गुज़ारिश' को ठीक से देखने वालों को हृतिक, 'माय नेम इज खान' के शाहरुख़ और 'गज़नी' के आमीर से ज्यादा सहज लगे हैं.

‘गुजारिश’ का फिल्मांकन बहुत ही खुबसूरत है तो ये कोई नई बात नहीं, भंसाली की हर फिल्म ख़ूबसूरत और भव्य तो होती ही है.


पूरी फिल्म इस सामाजीक प्रश्न पर केन्द्रित है की क्या किसी ऐसे शख्श को इच्छामृत्यु का अधिकार दिया जाना चाहिए जो पिछले चौदह वर्षों से लगातार दर्द में है और असहाय जी रहा है.


अदालत और साथ ही फिल्म देख रहा हर दर्शक भी, उसकी इस याचिका को खारिज़ कर देता है.


अब इस इच्छामृत्यु की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए 'एथेन' के आसपास के किरदारों को राजी कराना 'एथेन' के लिए सबसे बड़ी चुनोती थी. लेकिन दर्शकों को इस बात के लिए राज़ी करना यह निर्देशक के लिए उससे भी बड़ी चुनोती थी.


एक दर्शक के हिसाब से उस अपाहिज 'एथेन' के पास वो सब कुछ है जो एक कहानी में किसी किरदार के जीवित रहने के लिए ज़रूरी होता है. दर्शक अब तक 'एथेन' की अठखेलियों, हंसी, शरारतो और हरकतों की वजह से उस पात्र के इतने करीब हो जाता है की उसके ना होने को अब वो स्वीकार नहीं कर पायेगा. लेकिन फिल्म के अंत में एथेन की इच्छामृत्यु की ख्वाहीश को पूरा होते हुए देखने और उसमे दर्शको को भी भागीदार बनाने के बाद भी इस फिल्म के अंत को हैप्पी एंडिंग कहा जायेगा तो ये जादू नहीं, करिश्मा है संजय लीला भंसाली का...


फिल्म की शुरूआत से अंत तक हृथिक और ‘सौफिया’ के रूप में ऐश्वर्या, दोनों मुख्य किरदारों का रिश्ता सिर्फ और सिर्फ एक मरीज और नर्स का है, लेकिन फिर भी इस फिल्म के हर तीसरे द्रश्य में एक बेहतरीन लव स्टोरी की झलक दिखाई देती है.


फिल्म का खलनायक पूरी की पूरी फिल्म में सिर्फ एक द्रश्य में नज़र आता है लेकिन निर्देशकीय कौशल और कहानी का प्रस्तुतीकरण ऐसा की दर्शक का मन उस कुछ लम्हों के खल पात्र के प्रति घृणा और नफरत से भर जाता है.


निर्देशक भंसाली ने इस फिल्म में संगीत भी दिया है, कई समीक्षकों ने इस संगीत को निरुत्साही करार दिया. पर फिल्म की पटकथा और उसके किरदारों के साथ ये बखूबी मेल खता है...

मेने या किसी ने इस फिल्म की क्या रेटिंग की है ये मत देखिये, सितारे देखने हो तो 'गुज़ारिश' देखिये.

 :- कपिल सिंह चौहान