22 April 2011

"फंदे के अधिकारी"- मिलावट खोर!!


           इधर महाराष्ट्र सरकार ने एक नेक काम की शूरूआत कर दी. केंद्र सरकार से अनुसंशा की गयी है की खाद्य पदार्थो में मिलावट करने वाले मीलावटखोरो को अपराध साबीत होने पर फांसी की सजा दी जानी चाहिए. ये बात दीगर है की ये विधेयक १९४७ के आसपास ही आ जाना चाहिए था, क्योंकि अब तो ये मिलावट का 'वाइरस' पूरे देश की रग- रग में समा चुका है...


महाराष्ट्र सरकार की इस अनुसंशा की ख़बर को टीवी चैनल्स ने जो शीर्षक दिए उनकी बानगी देखिये- "खैर नहीं है अब मिलावट खोरों की, फांसी के फंदे पर पंहुचा सकती है मीलावटीयों को उनकी करतूत, अब मिलावट करना आसान नहीं होगा". वाह!, दूध के धुले टीवी चैनल्स वालो को इस बात की बिलकूल शरम नहीं थी की पुरे दिन वे जिस मिलावट के धंधे में मशगूल रहते हैं उसी तरह की करतूत के खिलाफ विधेयक की सिर्फ अनुसंशा किये जाने की खबर को वो हल्ला मचा कर ऐसे दिखा रहे हैं के जैसे इस देश में अब तक सैकड़ो मीलावटीयों को अफगानिस्तान की तर्ज पर कोड़े और पत्थरों से बेदम किया जा चूका हो, सजा दी जा चुकी हो! ये न्यूज़ चैनल वाले अपने गिरेबान में झाँक कर क्यों नहीं देखते, जो अपनी सहूलियत के हिसाब से जब चाहे, जैसे चाहे खबरों की मिलावट करते हैं और जब चाहे तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं...


वर्ल्ड कप सेमीफायनल में आफरीदी की कप्तानी में इस बार पाकिस्तान जितनी विनम्रता से भारत से हारा है, ऐसी विनम्रता और सादगी पूर्ण हार पकिस्तान ने इससे पहले इतिहास में कभी स्वीकार नहीं की थी...यंहा तक की मैच के दौरान भी आफरीदी का सचिन, ज़हीर ओर धोनी के साथ व्यवहार बड़ा दोस्ताना और चेहरे पर मुस्कान थी. मैदान पर किसी पाक कैप्टेन की ये अदा भारतीय खेमे में स्वागत योग्य थी पर ऐसा हो न सका. हमारी समस्या यही है, हम पता नहीं क्यों युद्ध तो खेल भावना से करते हैं पर खेलो की खासकर क्रिकेट की हार जीत को किसी युद्ध की जय पराजय समझते हैं और इसी बात के बतंगड़ का फायदा उठाने की कोशिश करता है हमारा मीडिया. जीत के गौरव ओर भारतीयों की खुशी को भुनाने के लिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने भारत और पाक की क्रिकेटीय रस्म को ऐसे-ऐसे शीर्षकों, और नामो से नवाज़ा है की कोई भी अपना आपा खो सकता है, खासकर हार के बाद! निजी तोर पर मुझे लग रहा था की मैदान पर हमने उन्हें हरा दिया तो हरा दिया, पर किसी सार्वजनिक माध्यम से इस विजय को बारबार कारगिल, ६५ और राजनैतिक मुद्दों से जोड़कर बताना, फूहड़ नारों से सजाना और उन्हें अपमानीत करना शायद भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाता है.ऐसे में यदि आफरीदी ने पाक जाकर वंहा हमारे मीडिया को आइना दिखाया तो इसमें गलत क्या है? मीडिया ने अफरीदी के बयानों में खुद के आरोपित होने की बजाय इधर उधर के अर्थ जोड़ कर देश को यह बताया की अफरीदी के हिसाब से “भारतियों को मेहमान नवाजी नही आती, हम जितना भी
हाथ बढ़ाये ये बदल नहीं सकते,” जबकी आफरीदी भारतियों से उतने खफा नहीं थे जितने की भारतीय मीडिया से. होना यह था की अफरीदी के बयान की प्रतिक्रिया किसी समझदार भारतीय मीडियाकर्मी से लेनी चाहिए थी लेकिन इसके बारे में जवाब हरभजन, युवराज और सुनिल शेट्टी से मांगे गए ओर वो भी तब जब इसकी पूरी सम्भावना है की इन तीनो को वास्तव में अफरीदी के पुरे बयान की जानकारी नहीं होगी, क्योंकि इन्होने प्रतिक्रिया तो उस बयान पर दी है जो इन्हें सम्मानीय न्यूज़ चेनल्स के रिपोटर्स ने अफरीदी का बयान बताया है.

वर्ल्ड कप मिलने के एक ही दिन बाद एक और मसला खड़ा हुआ और वह था नकली वर्ल्डकप का. यन्हा भी मीलावट!! ये बताया गया की 'असली कप' तो २१ लाख की ड्यूटी ना चुकाए जाने की वजह से कस्टम वालो के पास जब्त रखा हुआ है. अभी तक मुझे यह पता नहीं चल पाया की वास्तव में धोनी ने जो कप उठाया वो असली था या नकली था. लेकिन इस पर जो बयान बाजी हुई वह हास्यास्पद परंतू सोचनीय थी. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के उपाध्यक्ष राजीव शुक्ला से जब इस बाबद पुछा गया तो उन्होने कहा की देखिये नकली कप के बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, में इस पर नहो बोलूँगा. फिर उन्होने ही दबे मूंह यह भी कहा की “दिया गया कप भी, है तो असली ही पर वर्ल्ड कप की वह ट्राफी जो कस्टम वालो के यंहा जब्त है उसे समारोह में विजेता टीम को देने की परंपरा है और उसके बाद इस कप को आई सी सी के हेड क्वार्टर भेज दिया जाता है ओर बदले में विजेता टीम को वह कप दिया जाता है जो भारतीय टीम को समारोह में दिया गया”.. यंहा तक तो सब ठीक था, पर कस्टम वालो के खिलाफ प्रतिक्रिया देते हुए राजिव शुक्ला यह कह गए की कस्टम वालो को इस कप को ड्यूटी से मुक्त रखना चाहिए था...में पूछता हूँ क्यों??? आई सी सी, क्या हिन्दुस्तान की गोद ली हुई औलाद है जो उसे २१ लाख रूपये का लाभ दिया जाना चाहिए था?? राजीव शुक्ला जैसे व्यक्ति जो पहले पत्रकार थे, फिर नेता भी हुए, फिर राज्यसभा सदस्य फिर
बी सी सी आई के सदस्य, फिर एक न्यूज़ चैनल के मालिक, उन्हि राजिव शुक्ला ने एक नहीं दो-दो बड़े न्यूज़ चैनल्स पर ये कहा की "ये कप तो देश की धरोहर है और इसे क्यों ड्यूटी के नाम पर रोका गया? उन्होने कहां की कस्टम विभाग को ये तय करना चाहिए के किस वस्तु पर टैक्स लें और किस पर नहीं. पहली बात तो यह की यदि राजिव शुक्ला को कस्टम के नीति नियमो से शिकायत है तो अपने इस बयान के पहले और अब बाद में भी उन्होने कभी इन नियमो मे सुधार के लिए क्या कोई पहल की है? नहीं. क्योंकि आपको 'स्टेडीयम' से बाहर निकलने की फुर्सत मिले तब तो आप ऐसा करेंगे!! दूसरी बात यह की जो राजीव शुक्ला वर्ल्ड कप को देश की धरोहर बताकर कस्टम को ब्लैक मेल और देश को इमोशनल ब्लैक मेल करना चाह रहे थे उन्हें यह नहीं पता था की वर्ल्ड कप को कस्टम ने फायनल मैच के एक दिन पहले ही जब्त कर लिया था, तब तक वह देश की धरोहर नहीं था और भगवान् न करे यदि भारत श्रीलंका से हार जाता तो वह कप हमारी नहीं, श्रीलंका की धरोहर होता..यही नहीं राजीव शुक्ला से प्रश्न करने वाले दोनों ‘अनुभवी’ मीडिया कर्मियों ने भी इस बात पर कोई गौर नहीं किया की 'कप' को तो देश की धरोहर बनने के पहले जब्त किया गया था. साफ़ था, ना तो राजीव शुक्ला तथ्यों से वाकीफ थे, ना उन्हें ईसकी परवाह थी और मीडिया बंधू तो तर्कों को भूल कर सिर्फ २-३ मिनटों के हंगामा खड़ा करने के मकसद से बैठे थे. राजिव शुक्ला की मजबूरी यह थी की वो चाहकर भी देश हित की बात नहीं कर पा रहे थे क्योंकि यदि वे ऐसा करते तो उन्हें आई सी सी के खिलाफ बोलना पड़ता और आई सी सी (आई) के खिलाफ़ मतलब शरद पवार (बाबा) के खिलाफ़. अब वे ' अपने भविष्य (बी सी सी आई के अध्यक्ष पद) के साथ खिलवाड़ तो नहीं करना चाहेंगे ना!!

अरे मैं कहता हूँ देश की धरोहर भी हो तो भी उसके एवज में आई सी सी को क्यों २१ लाख रुपैयों की छूट दी जानी चाहिए? सिर्फ इसलिए क्योंकि एक 'भारतीय' शरद पवार इस वक़्त अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के अध्यक्ष हैं. शरद पवार के अध्यक्ष होने का एक और नुकसान हमारे देश को भुगतना पड़ा और वह यह की इस पुरे वर्ल्ड कप इवेंट को भारत में टैक्स फ्री घोषित किया गया, जो की पूरी दुनिया में होने वाली खेल प्रतियोगिताओ में सबसे ज्यादा कमाऊ पांच आयोजनों में से एक है. उफ्फ्फ..सुना है सिर्फ आई सी सी ने इस आयोजन से ९०० करोड़ रूपया बनाया है जो की घोषित है, ऊपर की कमाई का तो खेर हिस्साब ही नहीं होगा, यानि ४० से ४५ करोड़ रूपया तो भारत सरकार ने आई सी सी से इसलिए नहीं लिया क्योंकि शरद पवार उसके अध्यक्ष हैं. कर में यह छूट उन्ही शरद पवार को दी गयी जिन्होंने कोर्ट के आदेश को भी न मानते हुए गोदामों में सड़ रहे हज़ारो क्विंटल अनाज को गरीबो में बांटने से इनकार कर दिया था.
अरे साहब ! ये कोई कबद्दी या हाकी नहीं बल्कि धनपतियों-कुबेरों का 'गेम' है, यंहा स्टेडियम में एक दर्शक, एक मैच के लिए, एक सीट का उतना रूपया दे कर बैठता है जीतना शायद हाकी का एक खिलाड़ी पुरे साल नहीं कमाता.


ईसकी जांच क्यों नहीं की जानी चाहिए की किसके दबाव में इतने बड़े कमाऊ आयोजन को कर- मुक्त रखा गया?? क्या यह वाकया राजा और कलमाड़ी से मिलता जुलता नहीं लगता आपको ? क्या ज़रुरत थी की देश के खजाने को नुकसान पंहुचा कर आई सी सी को राहत दी गयी...क्या पकिस्तान के प्रधान मंत्री, श्रीलंका की राष्ट्रपति, और ऐसे तमाम ख़ास मेहमानों की आवभगत और सुरक्षा व्यवस्था में हुए करोडो रूपयों का खर्च और प्रबंध आई सी सी ने किया था??


क्यों नहीं, खेल में राजनीति की मिलावट, समाचारों में फिल्मो की मिलावट, फिल्मो और अंडर वर्ल्ड, टेली शापिंग और असत्य, पुलिस और क्राइम, बिल्डर्स और ब्रोकर्स, न्यूज़ चेनल्स और कोर्पोरेट, पत्रकार और नेता ओर ऐसे तमाम संयोजनों को प्रेरित करने वालो के खिलाफ़ भी एक विधेयक लाया जाना चाहिए और इन मिलावाटीयों को भी फांसी की सजा दी जानी चाहिए?


 
:- कुंवर कपिल सिंह चौहान

04 January 2011

“ग़ुज़ारिश-सौ ग्राम जिंदगी”

 ज़ी सिने अवार्ड्स के नोमीनेशंस देख कर मन को बड़ा आघात लगा. एक तो संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गुज़ारिश' का नाम 'बेस्ट फिल्म' केटेगरी में दिखायी नहीं दिया, वहीं दूसरी और साजिद खान का नाम फिल्म 'हाउसफुल' के लिए 'बेस्ट डिरेक्टर' की श्रेणी में शामिल किया गया है...सा'जिद्ध' की फिल्म 'हाउसफुल' और उसके निर्देशन में क्या क्या कमियां है ये देखने के बजाये, इस पर बात करना बेहतर है की 'गुज़ारिश' को 'सर्वश्रेष्ठ फिल्म' की श्रेणी में क्यों शामिल किया जाना चाहिए था?

  - ग़ुज़ारिश वैराग्य और अनुराग की कहानी है या सिर्फ वैराग्य में निहित अनुराग की कहानी या अनुराग से जन्मे वैराग्य की कहानी. शत प्रतिशत सम्भावना है की, जब आप सिनेमा हॉल से बाहर निकले तौ इसे परिभाषित न कर पाएं. लेकिन ये भी उतना ही सही है की, परिभाषित न कर पाने के इस भ्रम को आप आनंद और संतुष्टि के चरम तक महसूस करेंगे.

ये “सौ ग्राम जिन्दगी” है जिसे आप इस फिल्म को सिनेमा हॉल में देखते हुए जीते हैं और थिअटर से बाहर आकर भी तब तक जीते रहते हैं, जब तक जिन्दगी की धुप और रुखी हवा, आपके अन्दर से आल्हादित और भीगे हुए मन को सूखा न दे, लेकिन फिर किसी ताज़ी हवा के झोंके की तरह 'एथेन' का चेहरा आपकी आँखों के सामने आता है और आप फिर भीग जाते हैं. जी हाँ, ये जादू है - संजय लीला भंसाली और उनकी टीम का जादू !!


‘एथेन’- यानि, एक अभिनेता के लिए तो सिर्फ एक मरे हुए शरीर का जीवित चेहरा! इस किरदार के लिए हृतिक रोशन का चुनाव पूरी तरह से असंगत और अजीब लगता है, क्या कोई भी निर्देशक ऐसे किरदार में हृतिक जैसी शख्सियत का पूरा इस्तेमाल कर पायेगा?


गलती हमारी नहीं है. भारतीय सिनेमा के वर्तमान काल में व्यवसाय प्रबंध के स्नातक निर्देशकों की भीड़ सी लगी है और इस भीड़ में कई ऐसे भी हैं जो अपने निर्देशकीय स्वातंत्र्य की आड़ में दर्शको को भ्रमित करके सिनेमा हाल तक तो खिंच लेते हैं पर फिल्म के नाम पर दर्शकों को परदे पर दिखाते हैं ‘ठेंगा’...ऐसे ही भ्रम में ये दर्शक सिर्फ दर्शक न हो कर अपने आप को आलोचक के तौर पर देख रहे हैं, और कई बार ये आलोचक- दर्शक, फिल्म को देखे बगैर, सिर्फ कयास लगा कर ही उसे न देखने का फैसला कर लेते हैं. और ये सिर्फ एक कयास ही है, वरना ‘हृतिक’ के बिना इस किरदार की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी.

वैसे तो कुछ समाचार चैनलों के फिल्म समीक्षकों ने फिल्म की रिलीज़ के ही दिन हृतिक की असहजता का जिक्र किया था. पर 'गुज़ारिश' को ठीक से देखने वालों को हृतिक, 'माय नेम इज खान' के शाहरुख़ और 'गज़नी' के आमीर से ज्यादा सहज लगे हैं.

‘गुजारिश’ का फिल्मांकन बहुत ही खुबसूरत है तो ये कोई नई बात नहीं, भंसाली की हर फिल्म ख़ूबसूरत और भव्य तो होती ही है.


पूरी फिल्म इस सामाजीक प्रश्न पर केन्द्रित है की क्या किसी ऐसे शख्श को इच्छामृत्यु का अधिकार दिया जाना चाहिए जो पिछले चौदह वर्षों से लगातार दर्द में है और असहाय जी रहा है.


अदालत और साथ ही फिल्म देख रहा हर दर्शक भी, उसकी इस याचिका को खारिज़ कर देता है.


अब इस इच्छामृत्यु की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए 'एथेन' के आसपास के किरदारों को राजी कराना 'एथेन' के लिए सबसे बड़ी चुनोती थी. लेकिन दर्शकों को इस बात के लिए राज़ी करना यह निर्देशक के लिए उससे भी बड़ी चुनोती थी.


एक दर्शक के हिसाब से उस अपाहिज 'एथेन' के पास वो सब कुछ है जो एक कहानी में किसी किरदार के जीवित रहने के लिए ज़रूरी होता है. दर्शक अब तक 'एथेन' की अठखेलियों, हंसी, शरारतो और हरकतों की वजह से उस पात्र के इतने करीब हो जाता है की उसके ना होने को अब वो स्वीकार नहीं कर पायेगा. लेकिन फिल्म के अंत में एथेन की इच्छामृत्यु की ख्वाहीश को पूरा होते हुए देखने और उसमे दर्शको को भी भागीदार बनाने के बाद भी इस फिल्म के अंत को हैप्पी एंडिंग कहा जायेगा तो ये जादू नहीं, करिश्मा है संजय लीला भंसाली का...


फिल्म की शुरूआत से अंत तक हृथिक और ‘सौफिया’ के रूप में ऐश्वर्या, दोनों मुख्य किरदारों का रिश्ता सिर्फ और सिर्फ एक मरीज और नर्स का है, लेकिन फिर भी इस फिल्म के हर तीसरे द्रश्य में एक बेहतरीन लव स्टोरी की झलक दिखाई देती है.


फिल्म का खलनायक पूरी की पूरी फिल्म में सिर्फ एक द्रश्य में नज़र आता है लेकिन निर्देशकीय कौशल और कहानी का प्रस्तुतीकरण ऐसा की दर्शक का मन उस कुछ लम्हों के खल पात्र के प्रति घृणा और नफरत से भर जाता है.


निर्देशक भंसाली ने इस फिल्म में संगीत भी दिया है, कई समीक्षकों ने इस संगीत को निरुत्साही करार दिया. पर फिल्म की पटकथा और उसके किरदारों के साथ ये बखूबी मेल खता है...

मेने या किसी ने इस फिल्म की क्या रेटिंग की है ये मत देखिये, सितारे देखने हो तो 'गुज़ारिश' देखिये.

 :- कपिल सिंह चौहान