23 December 2010

किस्से !!

बोई फसल काट लूं
कुछ किस्से हैं,
जो बाँट लूं

लम्हें, जो कभी आँसू बन
बहे थे इन आँखों से,
सींच रहे थे 'आज' को

जब याद आते हैं
तो फिर बह निकलते हैं,
पर ये आँसू
किस्से नहीं बना करते!
हम पहले की तरह,
फालतू बात क्यों नहीं करते...?

बीत गए कई दिन
पलके उठाने में
तो बीते कुछ नज़रें मिलाने में

कुछ डर था खुद से
तो कुछ था समाज का,
ज़माने को आज
भले फुरसत न हो
हम पहले की तरह,
एक-दूसरे से, क्यों नहीं डरते...?
 पन्ने बेतरतीब से
बिखरे हैं फ़र्श पर
क्या फेंकूं क्या रखूं, ढ़ेर हो गया है

सौ सौ बार
हर खास ओ आम को
पढ़ कर सुनाया
जिन रद्दी के टुकड़ों को
हम पहले की तरह
बार-बार, खुद क्यों नहीं पढ़ते...?

एक पर्चे पर
चंद आड़ी टेढ़ी सतरें पढ़,
तुम गुलाबी हो जाया करती थी

वैसे ही लफ़्ज़ अब
वो ही जज़्बात हैं,
बदले न रंग तुम्हारा
पर्चा लाल हो जाता है
पहले तो इस तरह
मेरे लिखे की, 'प्रूफ रिडींग' नहीं करते थे…?

                           :- कपिल सिंह चौहान