23 December 2010

किस्से !!

बोई फसल काट लूं
कुछ किस्से हैं,
जो बाँट लूं

लम्हें, जो कभी आँसू बन
बहे थे इन आँखों से,
सींच रहे थे 'आज' को

जब याद आते हैं
तो फिर बह निकलते हैं,
पर ये आँसू
किस्से नहीं बना करते!
हम पहले की तरह,
फालतू बात क्यों नहीं करते...?

बीत गए कई दिन
पलके उठाने में
तो बीते कुछ नज़रें मिलाने में

कुछ डर था खुद से
तो कुछ था समाज का,
ज़माने को आज
भले फुरसत न हो
हम पहले की तरह,
एक-दूसरे से, क्यों नहीं डरते...?
 पन्ने बेतरतीब से
बिखरे हैं फ़र्श पर
क्या फेंकूं क्या रखूं, ढ़ेर हो गया है

सौ सौ बार
हर खास ओ आम को
पढ़ कर सुनाया
जिन रद्दी के टुकड़ों को
हम पहले की तरह
बार-बार, खुद क्यों नहीं पढ़ते...?

एक पर्चे पर
चंद आड़ी टेढ़ी सतरें पढ़,
तुम गुलाबी हो जाया करती थी

वैसे ही लफ़्ज़ अब
वो ही जज़्बात हैं,
बदले न रंग तुम्हारा
पर्चा लाल हो जाता है
पहले तो इस तरह
मेरे लिखे की, 'प्रूफ रिडींग' नहीं करते थे…?

                           :- कपिल सिंह चौहान

25 September 2010

आपा जी - अब्बा जी बनाम मम्मी- पापा!!!

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासी बहूल थांदला कस्बे में मेरा जन्म हुआ था और उसके बाद सिंचाई विभाग (अब जल संसाधन विभाग) में कार्यरत मेरे पापा का तबादला पेटलावद हो गया था .मुझसे दो बड़े भाई हैं और मेरे बाद एक छोटी बहन है, उसी के इन्तजार में मेरा जन्म हुआ . अगर वो पहले आ जाती, तो मेरे पैदा होने की कोई ज़रुरत नहीं रह जाती.

खैर, मैं जन्म से ही बहूत हष्ट-पुष्ट  था लेकिन मेरा पेट हमेशा ख़राब रहता था, ऐसा मम्मी कहती है. मेरे काका साहेब उस वक्त शायद पेटलावद या आसपास के किसी शहर के एस डी एम थे और मुझे 'कद्दू' कहते थे. इन दोनों भाइयों का परिवार रहता पेटलावद में ही था, साथ में.

एक और परिवार था, जिससे हमारे परिवार का घरोपा था और वो था 'बाबर साब', क्षमाँ करें, अब्बाजी का परिवार. इनसे पहचान की वजह यह थी कि ये भी हमारे 'होम टाउन' नीमच के ही रहने वाले थे. इसलिए जानपहचान पुरानी थी. 

ना तो ये कहानी हिन्दू- मुसलमान की है, न ऊपर वर्णित किसी चरित्र की, ये तो बस याद है 'आपा जी' की  जो 'बाबर साब', सॉरी, अब्बाजी ( उन्हें नाम से पुकारने पर मेरी मम्मी डांटती है) की पत्नी और नूरूद्दीन, एहसान, और  दो और भाई-बहन की अम्मी थी.


पेट में कीड़ों और दर्द की वजह से मैं बहूत रोता था, और मेरे रोने पर 'आपा जी' मुझे गोद में लेकर क़लमा पढ़ा करती थी. पूरा परिवार मुझे चुप करने की कोशिश कर ले, लेकिन मेरे रोने की आवाज़ सुनकर आपाजी अपने घर से आती, मुझे गोद में लेती और मैं चुप हो जाता. आपा जी और अब्बा जी   दोनों की ज़बान हमेशा लाल रहती थी, मूंह में हमेशा पान रहता था, अब्बाजी सफ़ेद कुर्ता- पायजामा पहनते थे और आपाजी सलवार -कुर्ता. मेरी मम्मी साडी और कभी-कभी कुर्ती कांचली पहनती है और पापा पेंट शर्ट. पापा उस वक्त कभी-कभी पान भी खा लेते थे. मेरी नज़रों में वो परिवार मुसलमान और मेरे मम्मी-पापा हिन्दू इसीलिए थे क्योंकि इनके लिबासों में फर्क था और अब्बाजी के बाल मेहँदी से रंगे थे. थोड़ा बड़ा होने पर भी इससे ज्यादा मुझे पता नहीं था.

आपाजी आये दिन 'स्टील' की प्लेट पर कपड़ा ढँक कर हमारे यहाँ गूंजे, सेवई और रंग बिरंगे पकवान दे जाती थी, वो प्लेट लौटाने के लिए मैं  उनके यहाँ जाता था और आपाजी मुझे खूब खिला-पिलाकर वापस छोड़ने आती. मैं बाहर खेला करता और उनके बड़े बच्चे मुझे यहाँ-वहाँ घूमा कर फिर घर छोड़ देते. मेरे भाइयों की उनसे अच्छी दोस्ती थी. एक दिन मैंने अब्बाजी के घर में एक बकरे को बंधा देखा. मैं खुश हो गया ! थोडा डरते हुए मैंने उससे दोस्ती की और उसे हाथ लगाना शुरू किया. वह मुझे भीट मारता रहा, मिमियाता रहा और मेरे एक-दो दिन उसके साथ अच्छे गुज़रे.

उस दिन सुबह-सुबह उठ कर बाहर गया, अरे! बकरा कहाँ  गया? अब्बा जी, आपा, मम्मी-पापा कोई बताने को तैयार नहीं कि बकरा गया कहाँ ?.. .वो  तो नूरूद्दीन भाई साहेब ने बताया कि आज मीट बनेगा ना!! मुझे मीट बनाने की विधि पता चली और बस...फिर तो कोहराम मच गया!! मेरे मम्मी-पापा, अब्बाजी-आपाजी और उनके बच्चे, ये सब एक तरफ और मैं अकेला एक तरफ, जैसे दंगा हो गया.... रो-रो कर मैं सब पर भारी पड़ गया. उस दिन, फिर क्या हुआ... मुझे किसी ने खबर नहीं लगने दी. 

अगली बार भी अब्बाजी ने डरते-डरते उसी जगह बकरा बाँधा, मुझे बहूत बुरा लगा, मैंने बकरे से न दोस्ती की और न ही उन दिनों आपाजी से मिलने गया. बाकी सब वैसा ही चलता रहा. 

दो-एक साल बाद की बात है, आपाजी ने मुझे खाना परोसा. मैंने खूब सूत के खाना खाया, लेकिन आपाजी ने आखिर तक नहीं बताया कि सब्जी काहे की थी. एहसान भैय्या मुझे इशारे कर रहे थे, मुझे उम्मीद थी कि वो ज़रूर बताएंगे और उन्होंने ही मुझे बताया कि तुझे आज अम्मी ने मीट खिलाया है! बस.  ये सुनना था कि मेरा ह्रदय परिवर्तन हो गया. मैंने खामखा आपा जी पर इतना गुस्सा किया, मीट भी क्या चीज होती है!  मेरे दिल से उनके लिए नफ़रत हमेशा के लिए निकल गयी. अब मैं इंतज़ार करने लगा, कब बकरा बंधेगा और कब मीट मिलेगा. दोनों परिवारों की एक बड़ी समस्या का हल हो गया था.

धीरे-धीरे मैं बड़ा हो गया. हम लोग नीमच शिफ्ट हो गए. मैंने पढाई भी वहीं  पूरी की. अब्बाजी भी रिटायर होने के बाद परिवार सहित नीमच आ गए थे. मेरे कई और मुस्लिम दोस्त बने जो आज तक हैं. हम उस वक्त  भी साथ  थे जब कई सालों पहले नीमच में दंगों की वजह से कर्फ्यू लगा था, हम उस वक्त भी साथ थे जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस की ख़बरें पढ़ी थी, हम मुंबई बम धमाकों की ख़बर आने के बाद भी साथ थे.
आज तक स्कूल, कॉलेज, खेल, चुनावों और मोहल्लो में कई बार मेरा झगड़ा हुआ, लेकिन आज तक किसी मुसलमान ने मुझ पर हाथ नहीं उठाया और न ही मैंने किसी मुसलमान को चांटा मारा है. आज तक किसी ने भी मुझसे इसलिए तो झगड़ा नहीं किया कि मैं हिन्दू हूँ और न ही मैं आज तक कहीं इसलिए लड़ने गया कि सामने वाला मुसलमान है. 

अखबारों और न्यूज़ चेनल्स पर दंगों और द्वेष की खबरें देख पढ़ कर कई बार भड़क जाता हूँ, पर बदला किससे लें, मारें किसे और क्यों!! ये सारे तो मेरी पहचान के हैं, मेरे दोस्त हैं!!!                                                                   
             

      

                   

04 September 2010

भगवान् के नाम पर "शैतानी" कारोबार!!!

                     आज सुबह सुबह आँख खुली,पलंग पर रखा रिमोट हाथ में आया, पॉवर आन किया तौ 'इ टी सी पंजाबी' पर कोई शो चल रहा था. मेने देखा, दो अति उत्साहित लडकियां मंच के एक और इस तरह से बैठी थी जैसे वे किसी न्यूज़ शो कि एंकर हो. कैमरा ज़ूम आउट हुआ तौ पता चला कि वो एक बाबा जी का साक्षात्कार ले रही हैं.बाबा जी का उत्साह भी उन लड़कियों से कम नहीं था. मुझे लगा ये भविष्य बता रहे होंगे, मैंने वाल्यूम  बढाया और तकिये को गोद में रख कर बैठ गया. भविष्य, ऐसा रहस्य है जिसे हर कोई जानना चाहता है. मुझे ज्योतिष पर भरोसा नहीं है पर फिर भी चैनल चेंज नहीं कर पाया.

बाबा जी बात बात में अटक रहे थे, एडिटिंग बहूत खराब थी,शो कि लाय्टिंग और भी बर्बाद. ये टीवी चैनल वाले क्वालिटी पर क्यों ध्यान नहीं देते.टेलिव्हिजन इन्दुस्ट्री का होने कि वजह से परदे पर कुछ भी देखो क्वालिटी का ख़याल एक बारगी आ ही जाता है. अरे ये क्या!! बाबाजी कह रहे थे, 'जीवन को गृह संचालित करते हैं.' एंकर ने पूछा- इन सब ग्रहों में कौन सा गृह है जो हमारी 'जीवन शैली' को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है?? बाबाजी बोले- 'शनि गृह'.ये सूर्य पुत्र हैं , काले हैं मगर सुंदर हैं, ये कर्मो का न्याय करते हैं १९ वर्ष, साड़े साती और धैय्याँ पता नही क्या क्या बोले.इसलिए इनका सभी को दर रहता है, इनका उपाय सबसे ज्यादा ज़रूरी है!
भाई लोजिक में दम था.पर फिर भी में उतना डरा नहीं. 
ये सजा कैसे देते हैं?  एंकर ने पुछा....!
"आग लग जाती है, बेटे कि मौत हो जाती है, स्त्रियों का चरित्र खराब हो जाता है, लोगो को चोर और डकैत बना देते हैं, आप से हत्या तक करवा देते हैं.बच्चे गलत संगत में पड़ जाते हैं, परिवार बर्बाद हो जाता है." बाबजी ने बताया :- 'ऐसा है, शनि महाराज का न्याय.' "भगवान् शिव तक साढ़े सात साल तक समाधी में रहे इनकी वजह से. भगवान् राम को इन्ही ने वनवास दिया."
                      मेरे मन में अचानक प्रश्न आया, और वहि प्रश्न एंकर ने भी बाबाजी से पूछ डाला."बाबाजी जब भगवान् श्री राम और भोलेनाथ स्वयं इनके प्रभाव से मुक्त नहीं रह पाए तौ हम मामूली जीवो का क्या होगा? क्या इस समस्या का कोई समाधान है? बाबाजी ने बड़ी ही मासूमियत से कहा- "समस्या है, तो समाधान भी ज़रूर होगा". यह कहते हुए बाबाजी थोडा हकलाये, मैंने सोचा, शायद दो तीन टेक तो हुए होंगे...अब तक में समझ चूका था ये टेलिशोप्पिंग का पैड अदवेर्ताईस चल रहा था,जिसमे अब लोवर  केप्शन और ऑस्टिन बैंड चालू हो चूका था. अब तक उसे एक असली साक्षात्कार का रूप देने कि कोशिश कि जा रही थी.        
                      बाबाजी ने कहा ये 'मंगल शनि कवच' पहन लीजिये आपके सभी कष्ट दूर हो जायेंगे. इसे कई जगहों के गंगा जल से शुद्ध किया  गया है, इसे अकाट्य मंत्रो के द्वारा अभिमंत्रित और प्राण प्रतिष्ठित किया गया है. जो बच्चा पड़ता नहीं है, वह पड़ने लगेगा, पति- बुरी संगत व् नशा त्याग देगा, पत्नी -सही रस्ते पर आ जाएगी, नौकरी में तरक्की होगी, व्यापार में सफलता मिलेगी, मन में अच्छे विचार आयेंगे, आप एक अच्छे इंसान बन जायेंगे .घर में रखिये, घर अनिश्चित दूर्घत्नाओ, आगजनी और चोरी डकैती से सुरक्षित रहेगा. गाड़ी में रखिये कभी दुर्घटना नहीं होगी, परिवार के सदस्य कभी बीमार नहीं होंगे,यदि किसी लम्बी बीमारी से ग्रस्त हैं तौ धारण करते ही बीमारी में राहत होगी, धारक के हर कष्ट का निवारण है ये मंगल शनि कवच.  

मुझे ख्याल आया यदि ट्राफिक डिपार्टमेंट फाईन के साथ साथ ड्रिंक एंड ड्राईव मामलो में ये कवच भी 'भेट' करे तौ एक तौ दूर्घतनाए नहीं होगी, दूसरा लोगो कि शराब कि आदत भी छूट जाएगी.

                   एक - एक करके मुझे, सभी सामयिक समस्याए याद आ गयी, अगर बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार नक्सलियों के नेता के गले में यह कवच पहना दे तो वो सही रस्ते पर आ जायेगा, या और यदि नक्सली सही रस्ते पर हैं तौ यह कवच नितीश कुमार को पहना दो शायद वो सही (नक्सलियों के) रस्ते पर चले जाये. क्यों न पुलिस के हर जवान को ये 'कवच' भी दिया जाये ताकि वह नक्सलियों पर विजय हो.
                     इस शो के बीच में, अनुपम श्याम ओझा जो कि एक 'एक्टर' हैं का टेस्टीमोनिअल भी आया, कि कैसे उन्हें इस कवच पर भरोसा नहीं हो रहा था पर अपनी 'लाल' चाची के कहने पर बेमन से उन्होंने यह कवच मंगवाया और धारण किया, उसके बाद उन्हें थिएटर से फिल्म के सफ़र में जो सफलता मिली, 'उससे तो सब वाकेफ हैं ही'.
                             मैंने सोचा शाहिनी आहूजा ने यदि ये पहना होता तौ वह 'गलत' काम नहीं करता और उसका करियर ग्राफ भी और आगे बढता.

                मुझे फिर ख़याल आया यदि सारी इन्स्योरांस कंपनिया पोलिसिस के साथ साथ ये कवच भी अपने 'धारको' को दें तो उन्हें कितना मुनाफा होगा, ना कोई दुर्घटना होगी, नहीं उन पर कोई क्लेम होगा.

                    यही नहीं, ये कवच मुंबई महानगरपालिका को भी दिया जा सकता है, यदि हर बारीश के पहले वह जीर्ण शीर्ण इमारतों में रहने वाले लोगो को यह कवच बांटे तो कोई इम्मारत नहीं गिरेगी और म न पा कि किरकिरी भी नहीं होगी.
                    बात बात में हजारो के टेस्ट लिखने वाले डॉक्टर्स, ये कवच प्रिस्क्रईब करें तो रोगी एकदम फीट हो जायेंगे.
                    मुझे बड़ा दुख भी हुआ, मेने सोचा अगर भगवान् श्री राम के वक्त ये महाराज इस 'साइंतिफीक' कवच का 'आविष्कार' कर देते तो श्री राम को वनवास नहीं होता और शंकर भगवान् को साड़े सात वर्ष तक समाधी नहीं लगानी पड़ती. काश!! भगवान् शंकर कि भी कोई 'लाल चाची' होती.   

                   कचरा वाला, दरवाजा ठोक रहा था, में डस्टबिन लेने गया,      वोइस ओवर चल रहा था " यह कवच आप पा सकते हैं सिर्फ 2951/- रुपये कि 'सहयोग राशी' में . अभी आर्डर करें, कॉल नाव. 

                       अरे! मेरे खयालो में, मैं उस कम्पनी का 'टोल फ्री' नंबर तो नोट ही नहीं कर पाया. खैर!! जनहीत में बता रहा हूँ, अगर आप भी वो कवच मंगवाना चाहते हैं तो कल "इ टी सी पंजाबी पर सुबह साडे दस बजे" देखना न भूले.
                       शनि महाराज कि जय!!!                 
                                     
                                                        

        
       

30 July 2010

स्वयंवर..!!

                "राहुल दुल्हनिया ले जायेंगे" इस तथाकथित स्वयंवर प्रसारण की घोषणा होते ही मैंने इसके विरोध का तरीका सोच लिया था. मैंने फैसला किया कि विरोध प्रदर्शन के लिए मैं इस विवाह की कोई रस्म टीवी पर नहीं देखूँगा.
                  "डिम्पी" यानि महाजन परिवार की बहू के आधी रात को घर छोड देने की खबर सुनते ही मुझे अपने विरोध प्रदर्शन के फैसले पर खुशी और तरीके पर मलाल हुआ. मलाल इसलिए कि मैंने उस वक्त विरोध को यदि सिर्फ अपने तक ही सीमित ना रखा होता और किसी सार्वजनिक मंच से लोगों  को शामिल करके व्यापक प्रदर्शन किया होता तो शायद आज इस देश की एक  और 'नादान' बेटी को यह दिन या रात ना देखना पड़ता. 
                खैर, मेरे जैसे किसी मरदूद को कोई सार्वजनिक मंच पर खड़ा हो कर अपनी बात कहने का मौका कैसे दे सकता है! मंच पर खड़ा होने का अधिकार तो सिर्फ सेलिब्रिटीज  की "कौम" को है और सेलिब्रिटीज की परिभाषा तो समाचार और मनोरंजन चेनल्स ने अपने व्यावसायिक हितों और मांगों के लिहाज से गढ़ रखी है. मैं अपने आप को महान ज्योतिश नहीं साबित करना चाहता,क्योंकि इस बात की शंका तो भारत के "जन गन  मन " सभी को थी, कि श्री राहुल महाजन के स्वयंवर के बाद उनकी नई पत्नी के साथ साथ क्या क्या दुर्घटनाएं हो सकती हैं.
                 दरअसल कांसेप्ट्स और विचारों से कंगाल एक टीवी चैनल ने भारतीय संस्कृति के सबसे बड़े सामाजिक संस्कार का सार्वजनिक रूप से मखौल उड़ाने की ठानी और विवाह को शो में बदल दिया.ऐसी साज सज्जा, ऐसी चकाचौंध, इनामों की ऐसी बरसात, कि यदि "राहुल" या "राखी" के बजाये किसी बन्दर का स्वयंवर रचा दें तो लोग उससे भी विवाह करने पहुंच जाएँ!! अब यदि ये सिर्फ शो है तो मेरे ख़याल से किसी भी हिन्दुस्तानी को "डिम्पी" और बिचारे "इलेश" से कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए. पर ऐसा हो नहीं सकता!!!
               सवाल ये हैं कि "स्वयंवर" में भाग लेने वाले उमीदवारों के माता- पिता क्या इसके परिणामों से आशन्कित नहीं थे? एक ड्रग एडिक्ट, अपनी पूर्व पत्नी को अक्सर पीटने वाले, निहायत ही वाह्यात और मनोरोगी से कोई कैसे अपनी बेटी की शादी कर सकता है? क्या इस शो के प्रचारकर्म, दर्शक संख्या या चका चौंध ने उनकी भी आँखों पर पट्टी बांध दी थी ? 
              हज़ारो की दर्शक संख्या के चलते क्या उन माता- पीता ने ये मान लिया कि दर्शकों ने इस शो को सिर्फ वर- वधु को आशीर्वाद देने या उनके सफल दांपत्य जीवन की कामना करते हुए ही देखा होगा? आधे से ज्यादा आबादी दूसरो के घरों  में आग लगने पर पानी छिड़कने के बजाये ताली बजाना ज्यादा पसंद करती है.
              खैर "डिम्पी" के घर छोड़ने की खबरों से स्वयंवर रचाने वाले टीवी चैनल वालों को ज़रूर खुशी हुई होगी, क्योंकि उनके लिए तो "पिक्चर अब शुरू हुई है मेरे दोस्त!".