06 March 2020

ऐ.. रन अंकित रन !


नीमच पुलिस कल फ़ूल कॉन्फ़िडेंट थी भिया... पुलिस पहले तो आरोपी अंकित ऐरन को खुद गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी, और जब वो सरेंडर करने कोर्ट आ गया तो फिर उसे घर जाने की इजाजत दे दी। भई, उसने भी तो एहसान किया है सरेंडर होकर ! तो पुलिस ने भी एहसान का बदला एहसान से चुका दिया. जा अंकित, जी ले अपनी जिंदगी!! खैर, पुलिस ने अपना (हमारा) टॉलरेंस लेवल बहुत बढ़ा दिया है। अब सब कुछ सहन हो जाता है। 

अंकित ऐरन पर रासुका लगाई गई है... खाद्य विभाग की टीम ने उसकी फ़ैक्ट्री पर छापामार कार्यवाही में 'गुणकारी' हल्दी और लाल मिर्च में रंग मिलाते हुए उसे रंगे हाथों पकड़ा था। हल्दी मतलब, आप और हम नाक बंद कर के कभी-कभी इसलिये गटक लेते हैं कि इससे शरीर का 'ज़हर' खत्म होता है। इसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ानेे के गुण हैं, ये शरीर को डीटॉक्स करती है... लेकिन आपको 'मिर्ची' लगेगी यह जान कर कि अंकित उस प्राणदायी हल्दी में 'ज़हर' मिला रहा था... ज़हर याने भाव बढ़ानेे का रंग। रंग का ब्रांड 'महाकाल'. महाकाल नाम से ऐसा रंग बनाया जा रहा है, क्या इससे आपकी धार्मिक भावनाएं आहत नहीं होतींं! मेरी तो होती हैं। 

अंकित की 'हल्दी' हो चुकी है, शादी शुदा है। उसकी शादी में उसी की फ़ैक्ट्री की हल्दी आई होगी! आप भी गए होंगे भोजन करने! अंकित उस ग्रुप को बिलॉन्ग करता है, जो हर वर्ष शहर के एक चौराहे पर विशाल गणपति की प्रतिमा स्थापित करता है. मिलावट खोरी/ज़हरख़्वानी से पैसे कमाना और फिर 'गणपति' में चंदा देना, ज़हर बेच कर गणपति मनाना! ये कैसी परिपाटी! ऐसा गणपति उत्सव किस को चाहिए भैय्या? वहां प्रसाद में धनिया भी मिलता है कभी-कभी, वह भी तो 'रंग' रहे हैं लोग।

आज अंकित का फ़ेसबुक देखा। भरी-पूरी फ़्रेंड लिस्ट है। अंकित के कपड़े कलरफ़ुल... गहरा रंग पसंद है। इसीलिये हल्दी-मिर्ची में भी रंग मिलाता है दिखे। गले में छोटे-छोटे रुद्राक्ष की माला। हालांकि रुद्राक्ष असली नहीं होंगे, क्योंकि उसे तो मिलावट पसंद है या यूं कह लो कि शायद इन्हीं लोगों की 'हैसियत' होती है असली रुद्राक्ष पहनने की या इन्हे भी कोई असली के नाम पर नकली टीका गया होगा। फोटो देखिये उसके... ग्रूप फ़ोटोज़ मित्रों के साथ...क्या बॉन्डींग है...! एक जैसे कपड़े।  इन सभी मित्रों के यहाँ यही हल्दी-मिर्ची सप्लाई होती होगी, 'पौष्टिक' वाली!! अंकित के बच्चे, उसके मित्रों के बच्चे भी स्कूल जाते होंगे। 'क्वालिटी' एजुकेशन इन सभी की डिमांड होगी। अंकित के मित्र बच्चों की एजुकेशन में क्वालिटी खोज रहे हैं। अच्छी परवरिश, शुद्ध हवा, शुद्ध वातावरण खोज रहे हैं वो बच्चों के लिये और अंकित क्या कर रहा है!! अपने मित्रों के बच्चों के स्कूल टिफ़िन में 'ज़हर' मिला रहा!!

हम ऐसे लोगों को पदवियाँ क्यों नहीं देते, जो भी ऐसा काम करते हैं! जब दिल्ली में केजरीवाल पहली बार मुख्यमंत्री बनें तो यहाँ विज्ञापन छपवाये गए - "अग्रवाल समाज के गौरव - केजरीवाल"। जब किसी भी समाज का कोई व्यक्ति अपराध करता है तो उस व्यक्ति विशेष के लिये ऐसे बैनर भी लगने चाहिए, जैसे अग्रवाल समाज पर 'कलंक' या अला-फ़लां समाज पर कलंक...गलती से कोई अपराध एक बार होता है तो उसे गलती माना जा सकता है। गलती फिर भी क्षमा योग्य है। मगर जब बार-बार या जानकर ऐसा कोई कृत्य किया जाए जिससे किसी अन्य का अहित हो सकता हो तो वह गलती नहीं अपराध है। ऐसे लोगों के मित्रों को, परिवार को, समाज को आगे आना चाहिए और तिरस्कृत करते हुए यह समझाईश दी जानी चाहिए कि इस तरह के अपराध से दूर होने पर ही हम तुम्हारे साथ हैं अन्यथा नहीं। 

मुनाफ़ा कमाने, पैसा कमाने का ऐसा 'एडिक्शन', ऐसा नशा किस काम का कि अपनों की ही जान के दुश्मन बन जाएं! व्यापारी संघ जब निर्दोष व्यापारियों पर होने वाली गलत कार्यवाहियों पर व्यापारीयों के साथ खडा रहता है, तब दोषि व्यापारीयों पर की जाने वाली सही कार्यवाहियों पर उसे ऐसी व्यवस्था करना चाहिए कि मिलावटियों के परिवार की सात पुश्तें भी व्यापार ना कर सकें.

~ कपिलसिंह चौहान

29 April 2019

भोपाल सीट, कहीं भाजपा के गले की हड्डी ना बन जाये

                                                                             

                                                                                                       - कपिल सिंह चौहान
मध्यप्रदेश की भोपाल लोकसभा सीट उसी दिन से चर्चा में आ गई थी जिस रोज कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को भोपाल से अपना लोकसभा उम्मीद्वार घोषित किया. भोपाल सीट पर पिछले कई चुनावो से भाजपा का कब्जा रहा और यह माना गया की दिग्विजय सिंह को फ़साने के लिए उन्हें इस सीट पर झोंका गया है. उसके बाद भाजपा द्वारा साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से टिकट दिए जाने पर, यह देश भर में सबसे ज्यादा चर्चित सीट हो गई है. साध्वी प्रज्ञा कट्टर हिंदुत्व का चेहरा हैं. साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी और उनके द्वारा दिये गए बयानों से देश भर में जो संवाद पैदा हुआ उसने भाजपा के उस पुराने चेहरे को याद दिला दिया जिस चेहरे को 2014 में भाजपा खुद भूला कर चुनाव में उतरी थी या याद नहीं दिलाना चाहती थी. बीते लोकसभा चुनाव में गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की 2014 चुनाव अभियान समिती के अध्यक्ष नरेन्द्र मोदी ने गुजरात मॉडल और विकास पर ही ध्यान केन्द्रित किया था. तब घोषणा-पत्र को लेकर भी भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरलीमनोहर जोशी और मोदी के बीच कुछ तनाव की खबरें आई थी क्यूँकी मोदी भाजपा के हिंदूवादी चेहरे से विरत विकास पर ही फोकस करना चाहते थे और इसीलिए पिछले घोषणा पत्र में हिंदुत्व पर नरमाई रही. इस का फ़ायदा भी भाजपा को मिला और देश में मोदी ने एक छत्र जीत हासील की और प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए.  
अब सवाल यह उठता है की बीते 5 वर्षो में ऐसा क्या हुआ की भाजपा को साध्वी प्रज्ञा की आवश्यकता आन पड़ी और उसके बाद वे देश भर के विमर्श का केंद्र बन गई ! साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी के बाद से काश्मीर से लेकर देश भर के विपक्षी नेताओं ने भाजपा के खिलाफ अपना मूंह खोला, जो होना ही था, तो क्या भाजपा को इसका अंदेशा नहीं था ! क्या भाजपा स्वयं इस बार साध्वी प्रज्ञा के सहारे अपने उस चेहरे को भी सामने रखना चाहती है जिसे वो 2014 में छुपा रही थी. यह मात्र संयोग भी रहा हो की दिग्विजय सिंह के खिलाफ भाजपा को कोई अन्य उम्मीद्वार ना मिला हो या फिर कोई अन्य नेता राजी ना हुआ हो. यह भी हो सकता है की मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बराबरी वाले प्रदर्शन से पार्टी को यह महसूस हो रहा हो की थोड़ा सा हिंदुत्व का छौंक लगा कर वे कांग्रेस को पछाड़ने में कामयाब होंगे.         
देश भर में साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी के बाद एकदम से चुनावी रंगत बदल गई. भाजपा के कार्यकर्ता यह प्रचारित करने लगे की साध्वी, दिग्विजय सिंह से बदला लेने आई है. कहा जाने लगा की साध्वी प्रज्ञा के हाथों दिग्विजय सिंह को हराकर साध्वी को न्याय दिलाना है. सोशल मीडीया पर भाजपाईयों ने उन यातनाओं का जिक्र करते हुए साध्वी की फिक्र जताई की कैसे साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी के बाद उनके साथ अन्याय हुआ. अजीब यह था की भोपाल से उनके नाम की घोषणा होने से पहले साध्वी प्रज्ञा की ऐसी फ़िक्र किसी को नहीं थी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी की पैरवी करते हुए यह बयान दिया की “उन पर आरोप सिद्ध नहीं हुआ है” और “विपक्षीयो द्वारा तो कई ऐसे दागी नेताओं को भाव दिया जाता है जिन पर आरोप सिद्ध हुए हैं.”
विडम्बना यह है की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को तो 2014 में इसलिए भी वोट मिले थे क्यूँकी उन्होंने कहा था की वे 100 दिन में दागी सांसदों के खिलाफ कानून ले कर आयेंगे. कानून बनाने के बजाये उन्होंने साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार कैसे बनाया ! फिर उनमें और अन्य पार्टीयो में अंतर क्या है ?
मुम्बई एटीएस चीफ हेमंत करकरे पर दिए गए बयान सहित साध्वी के अन्य बयानों को उनकी राजनितीक अपरिपक्वता मान कर छोड़ भी दें तो कैलाश विजयवर्गीय जैसे बड़े और घाघ भाजपाई नेताओं का यह कहना की “साध्वी प्रज्ञा की जीत से यह तय होगा की हिंदुत्व आतंकवाद है की नहीं” यह भाजपा के लिए बहुत खतरनाक और आत्मघाती ही है. क्या होगा यह तो परिणामो पर पता चलेगा मगर सोचिये यदि साध्वी प्रज्ञा हार गई तो क्या साबित होगा ? यह की हिंदुत्व आतंकवाद है ? भाजपा साध्वी प्रज्ञा की हार के बाद क्या मूंह दिखायेगी !
जहां तक भोपाल सीट का प्रश्न है अब तक दिग्विजय सिंह बहुत सावधानी से सिर्फ प्रचार मे लगे हैं, पिछली गलतीयों की माफी भी मांग रहे हैं. शुरुआती संभावनाओ में एकदम से हारे हुए लग रहे दिग्विजय सिंह पिछले एक महीने से भोपाल नापने में लगे हैं. उनकी तैयारी अच्छी दिख रही है और वो रोजाना भोपाल से संबंधित मुद्दे उठा रहे हैं. यह चुनाव उनकी प्रतिष्ठा का चुनाव बन चुका है. उनका पूरा परिवार पुरजोर मेहनत कर रहा है क्यूँकी वे जानते हैं की टक्कर कांटे की नहीं बल्की वे पीछे ही हैं. लेकिन यह भी सही है की हौले-हौले वे आगे बढ़ तो रहे हैं. जबकी भाजपा ने अपना प्रत्याशी घोषित करने में बहुत देर की. साध्वी से भाजपा को देश में माहौल बनाने का भले अवसर मिला हो लेकिन भोपाल में क्या होगा यह विचारणीय है. कांग्रेस ने दीग्गीराजा को भोपाल व्यस्त करके अच्छा ही किया नहीं तो चुनावी मौसम में वे अपने बयानों से कांग्रेस के लिए संकट खड़े करते आये हैं. उधर जब साध्वी के बयानों से परेशान संघ और भाजपा आलाकमान उन्हें बार-बार समझाईश और हिदायतें दे रहा है तो कम से कम कैलाश विजयवर्गीय जैसो को और मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाहीये. विजयवर्गीय को ऐसे बयान नहीं देने चाहीए जो भाजपा के गले की हड्डी बन जाए. 

~ कपिल सिंह चौहान
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फोटो साभार- पत्रिका

26 April 2018

पत्रकार स्वयं की लड़ाई लड लेंगे, तो सब पवित्तर कर देंगे...

हमारे देश में चिकित्सकों को भगवान माना जाता है, और आम तौर पर उन्हे श्रद्धा की नजर से ही देखा जाता है, दुश्मन की नज़र से नही. सारे देश में अपने सुविधाजनक एसी चेम्बर में बैठ कर परामर्श दे रहे चिकित्सकों की सुरक्षा हेतु चिकित्सक सुरक्षा विधेयक लागु किया गया है. मगर दुर्गम परिस्थितियों में, खतरनाक ऑपरेशनस के दौरान व आपराधिक सफेद-पोश माफीयाओं के खिलाफ दर दर भटक कर रिपोर्टींग करने वाले पत्रकारों के लिये अधिकांश प्रदेशों में पत्रकार सुरक्षा कानून अब तक लागू नही किया गया.
देश भर में चिकित्सक एक ही संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन से सम्बद्ध हैं और इसी मातृ- संस्था के बैनर तले एक हैं. देश में वकीलों कि स्थिती भी मजबूत है क्योंकी वे भी बार काउंसिल ऑफ इण्डिया के बैनर पर स्टेट बार काउंसिल ऑफ इंडिया से बंधे हैं. "श्रमजीवी चिकित्सक संघ" या "आंचलिक वकील संघ" नामों वाले संगठन देश भर में कंही भी अस्तित्व में नही है. किंतु पत्रकारों के दर्जनों संगठन प्रत्येक राज्य में संचालित किये जा रहे हैं. कहने को "बार काउंसिल ऑफ इडिया" व "मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया" की तर्ज पर "प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया" का भी गठन किया गया है. मगर जो मजबूत संरचना निचले स्तर तक बार व मेडीकल काउंसिल की है, वह प्रेस काउंसिल की नही है. युं तो सुप्रिम कोर्ट का रिटायर्ड जज प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का प्रमुख होता है मगर बार काउंसिल के प्रमुख की तरह देश भर के पत्रकारों द्वारा नही चुना जाता. वह मनोनित किया जाता है. 
आज तक देश में जिस प्रमुखता से चिकित्सकों व वकीलों ने अपनी आवाज समय-समय पर प्रभावी तौर से बुलंद की है वेसा पत्रकार अपनी मांगों को लेकर नही कर पाये. देश में प्रेस की स्वतंत्रता पर आघात के नाम पर पत्रकारों को किसी बंधन में नही बांधा जाना आज पत्रकारों की दुर्दशा का प्रमुख कारण है. पत्रकार स्वतंत्रता के नाम पर पिछडे रह गये और कई भागों में बंट गये. आखिर क्यों प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया वकीलों व चिकित्सकों की तर्ज पर देश में पत्रकारों का पंजियन नही करती ? आज भी पत्रकारों को स्वयं को पत्रकार परिभाषित करने के लिये राज्य सरकारों के समक्ष याचना करना पडती हैं. तब जबकी प्रेस की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटा जाता है मगर पत्रकार होने, ना होने का निर्णय राज्य सरकारें करती हैं. किसी भी कॉलेज से एमबीबीएस अथवा लॉ की डिग्री ले कर कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र चिकित्सक अथवा वकील के तौर पर कार्य कर सकता हैं और उसके बाद उनके हितों की रक्षा बार अथवा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन करती हैं. चुंकी पत्रकारों के पास प्रेस काउंसिल से अधिमान्य होने की सरल व्यवस्था नही है इसीलिये देश में वास्तविक तौर पर कार्य करने वाले पत्रकारों में से मात्र 10 प्रतिशत पत्रकार भी सरकारों द्वारा अधिमान्य नही हैं और संकट व आवश्यकता के समय उन्हे स्वयं को पत्रकार साबित करना ही मुश्किल हो जाता है.
बार काउंसिल की तर्ज पर पत्रकारों के लिये भी वर्ष में दो बार परीक्षाएं आयोजित की जानी चाहीये. वकील बनने के लीये लॉ की डिग्री अनिवार्य है और उसके बाद भी प्रेक्टीस शुरु करने के लिये वकीलों को बार काउंसिल द्वारा आयोजित परीक्षा पास करनी होती है. इसके लिये कई अवसर होते हैं और यह एक सरल परीक्षा होती है. पत्रकारों के लिये डीग्री आवश्यक नही है क्योंकी पत्रकारीता सिलेबस आधारीत कम और दृश्टीकोण आधारीत ज़्यादा होती है और इसी वजह से डीग्री आवश्यक नही है. मगर प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया द्वारा कम से कम पत्रकारों का सामान्य द्रष्टिकोण तो आंका जा सकता है और इसके लिये वर्ष में दो बार कई अवसर दिये जा सकते हैं. सफल परिक्षार्थी को पत्रकार घोषित किया जाना चाहीये और फिर वह देश भर में पत्रकार के तौर पर जाना जाये. साथ ही वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का सदस्य भी बन जाये. 
लाखों करोडों रुपये सरकार से संसाधनों के नाम पर लेने व खर्च करने के बावजुद प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने अपने गठन के बाद आज तक पत्रकार हितों के लिये सुधारात्मक कदम नही उठाये हैं. ना ही पत्रकारों को पहचान दिलाई है. पत्रकार आज भी अपनी पहचान के लिये या तो सरकार या फिर अपने मीडीया हॉउसेस के मालीकों पर निर्भर हैं. ओर यही कारण है की पत्रकार हितों व पत्रकार कल्याण के नाम पर राज्यों में कुकुरमुत्तों की तरह विभिन्न पत्रकार संगठन उग आये हैं और इन संगठनो ने पत्रकारों को एक करने के नाम पर और विभक्त कर दिया है. दशकों से पत्रकार हितों को ले कर देश में कोई बडा आंदोलन हुआ हो या चिकित्सकों व वकीलों की तरह देश भर के पत्रकार अपनी मांगों को लेकर एक साथ सडकों पर आये हो या अपने कार्य से विरत रहे हों या अपने हितों के लिये सरकारों पर दबाव बनाने में सफल हुए हों यह स्मृति में नही है. 
प्रदेश के किसी भी पत्रकार संगठन को गौर से देख लिजिये. क्या पत्रकारों को ये कोई भी बडा लाभ या उपलब्धि दे पाये हैं !! इन संगठनो द्वारा जारी पहचान-पत्र, सरकार की किसी योजना का लाभ दिलाने तो दूर, पत्रकार को पहचान दिलाने के लिये भी काफी नही. इन संगठनो के शिर्ष पदों पर लगातार वर्षों से काबीज पदाधिकारी, राजधानियों में अपना उल्लु साध लेते हैं और पत्रकार हितों को नजरअंदाज कर देते हैं. इन संगठनों के निर्वाचन भी होते हैं मगर किसी कॉर्पोरेट हाउस की तर्ज पर चलने वाले इन पत्रकार संगठनों के मालीक यानी पदाधिकारी कभी नही बदलते. लगभग हर जिले से इन्हे सौ-पचास पत्रकार मिल जाते हैं और राजधानी में आयोजित अधिवेशनों में दो ढाई हजार की संख्या दिखा कर इन संगठनों के पदाधिकारी अपने निजी हितों के लिये मौल भाव तक कर लेते हैं. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को चाहिये की पत्रकारों को पंजिकृत व पहचान दिलाने का कार्य अपने हाथ में ले और इन्हे एक साथ एक ही संगठन के सदस्य बनाये. इन्ही सदस्यों के माध्यम से प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के पदाधिकारी निर्वाचित किये जाये. ताकी पत्रकारों की आवाज देश में बुलंद हो सके और देश के पत्रकार एक हो सकें.   

‍‍~ कपिल सिंह चौहान
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14 November 2017

न्याय रहित निर्णय करना राजपुतों की परंपरा नही...



आज से पहले किसी ने जानने की कोशीश की कि ये 'पद्मावती' पात्र काल्पनिक है, या वास्तविक ? या ये जानने की कोशीश की "कि ये पात्र कितना काल्पनिक है और कितना वास्तविक ? कुछ ने की... मगर यह पात्र हिंदुस्तान में इतना चर्चित और बहस का विषय कभी नही बनता की आज 8 वर्ष का बालक भी "रानी मां पद्मावती" का नाम ले रहा है... धन्यवाद, संजय लीला भंसाली, 'पद्मावती' फिल्म को शूट करने का जिम्मा लेने के लिये. धन्यवाद, नारी स्वाभिमान की सबसे बडी प्रतीक 'पद्मावती' की कहानी से रूबरू कराने के लिये.... धन्यवाद, हम राजपुतों को आजादी के बाद किसी भी मुद्दे पर इतना 'एक' करने के लिये...
उस वक्त किसी राजपुत ने मलिक मुहम्मद 'जायसी' का सर कलम कर दिया होता तो आज 497 वर्ष बाद इस कहानी को लेकर ये नौबत ही नही आती, यह बवाल ही नही उठता... उस दौर में तो आज से ज़्यादा राजपुत सुरमा थे, उनका खूं जायसी पर इतना नही खोला जितना आज संजय लीला भंसाली पर !!
कौन सी कहानी सच है, क्या झूठ है, और कितनी कल्पना जोड़ी गई है ? किसी को पता नही. राजपुतों ने आज तक अपने लिखित इतिहास के साथ हुए खिलवाड की पुरजोर खिलाफत कभी नही की... राजपुत शासकों को लूट कर मुगलों ने अपने अपने खजाने भरे... वर्तमान में एतिहासीक राजपुताना इमारतों और किलों की दुर्दशा देख लिजिये और देश में मुगलकालीन इमारतों की कायम चमक-दमक... आप को अंदाजा हो जायेगा की 1947 से 2017 तक 70 वर्षों बाद आपने जागने में देर कर दी... संजय लीला भंसाली से निपटने के बजाय आप अपनी अमुल्य एतिहासीक धरोहरों पर कालीख पोतने वाली पिछली 70 बरस की सरकारों से निपटेंगे तो राजपुत धन्य होगा...
अभी तक, इतना विवाद हो जाने के बाद भी स्पष्ट तौर पर यह मेरी समझ नही आ रहा की 'पद्मावती' फिल्म का विरोध किसलिये ? जब संजय शूटींग कर रहे थे और उन पर करणी सेना द्वारा हमला किया गया था, तो आरोप था की फिल्म में 'खिलजी और पद्मावती' के बीच कोई स्वप्न द्रष्य फिल्माया जा रहा था. ऐसा था, तो अब संजय एक वीडीयो जारी कर बता चुके हैं की उनकी फिल्म में ऐसा कोई द्रश्य नही है...विवाद खत्म हो जाना चाहीये...
फिर एक बात आई की "हम पद्मावती को कालबेलीयों के साथ किसी सभा में नृत्य करते नही देख सकते ? ठीक है, इस बात पर संजय से उनकी इस फिल्म में से वे सारे गाने हटा देने की स्पष्ट मांग करनी चाहीये जिसमें दिपीका पादुकोण ने नृत्य किया है... विवाद खत्म ...
वेसे दृश्य तो मुझे यह ज़्यादा काल्पनिक और हास्यास्पद लगता है जिसमें किसी दुसरे शासक की लालसा पर कोई राजपुत राजा अपने राज्य और उसकी प्रजा के हीतों के लिये अपनी रानी का चेहरा सरोवर में अथवा दर्पण में दिखाने को राजी हो जाये... इस लालसा पर ही युद्द हो जाना चाहीये... सो ये भी गलत है... विवाद खत्म... कुछ युं भी कहते हैं की 'रानी पद्मावती' अपने किले में सरोवर के पास खडी थी, वहां खिलजी ने सरोवर में उनकी परछाई को देख लिया, तब पहली बार खिलजी के मन में उनके प्रति आसक्ती का भाव आया.
पर कुछ कहते हैं की रावल रतन सिंह जी के दरबार का एक गद्दार जाकर खिलजी से मिला जिसने रावल रतन सिंह की रानी पद्मावती के रूप का वर्णन किया ताकी खिलजी, रावल रतन सिंह पर हमला बोले और गद्दार अपना बदला ले सकें...
वर्तमान वसुंधरा सरकार ने राजस्थान टूरीज्म प्रमोशन के लिये जो एड बनवाया उसमे जिक्र किया की "अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी 'प्रेमीका' 'पद्मावती' का चेहरा इस सरोवर में देखा और बावला हो गया..." उम्मीद यही है की संजय लीला भंसाली से निपटने के बाद राजपुत, वसुंधरा सरकार से भी निपटेंगे... लेकीन जो भाजपाई, संजय लीला भंसाली से निपटने के लिये राजपुतों के साथ खडे हैं क्या वे भाजपाई, वसुंधरा सरकार से निपटने के लिये भी हम राजपुतों की मदद करेंगे ?
जायसी ने तो स्वयं अपनी पूरी कहानी को काल्पनिक बताया... उनके द्वारा 'पद्मावत' खिलजी के चित्तोड आक्रमण के लगभग 200 वर्ष बाद लिखा गया... जायसी ने लिखा "एक तोता था जिसके मूंह से 'पद्मावती' के सौंदर्य की गाथा सुनकर चित्तौड के राजा उस तोते के पिछे-पिछे श्रीलंका चले गये, जहाँ की राजकुमारी 'पद्मावती' थी !!! 1300 इस्वी में बोलने वाले तोते होते थे क्या ? दोहराने वाले तोते तो होते हैं, मगर आकाशवाणी की तरह खबरें सुनाने वालें ? और 200 वर्षों बाद हुए जायसी को इनकी प्रेम कहानी पता है, मगर खिलजी ने जिस काल में आक्रमण किया था उस काल में पैदा हुये अमीर खुसरों ने यह तो लिखा की खिलजी ने आक्रमण किया था मगर उन्होने कहीं भी 'पद्मावती' व इनकी प्रेम कहानी का उल्लेख नही किया... खुसरों को शायद लव- स्टोरीस में इंट्रेस्ट नही होगा !!!
आज हमारे समक्ष सबसे बडी चुनोती यह है की हम जायसी को भी पढे, खुसरों को भी पढे, अब तक हुए शोधों को पढे फिर हमारे राजपुताना इतिहास को वेसा लिखें जैसा हुआ...
हालांकी संजय लीला भंसाली भी मजे ले रहे हैं और अपने नफे-नुकसान से वाकीफ हैं... तभी तो जो जायसी स्वयं अपने 'पद्मावत' को काल्पनिक बता चुके हैं, उनकी कहानी पर फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली कह रहे हैं की "हमने इतिहास के साथ कोई छेडछाड नही की है"... जब आपकी फिल्म जायसी के पद्मावत पर आधारित है, वास्तविकता पर आधारीत नही है तो इस कहानी में दिखाने जैसा क्या है ? और यदि आपकी फिल्म काल्पनिक है तो किसी भी किरदार का नाम रावल रतन सिंह नही होना चाहीये !! क्योंकि किले की महारानियों के जोहर, जो एक मात्र सत्य है वह किसी खिलजी के डर से नही बल्कि
युद्ध के अंतिम भयावह परिणाम से पूर्व महल में होने वाली पवित्र रस्म थी जिसे रानी पद्मिनी ने अपनाया।
अब इतनी पेचीदगीयों में हम राजपुतों को किस बात पर विरोध करना चाहीये ? किस बात पर एक होना चाहीये ?
अपनी विरासत को संभालने और अपने सच्चे इतिहास को दुनिया के समक्ष लाना ही हमारा काम होना चाहीये. यह नही की हम लिखे हुए इतिहास में से अपनी विजय, अपनी गौरवगाथाओं, अपने बलिदान, अपने त्याग को छांट लें और अपनी हार, महलों के षड्यंत्र, परिवार में मौजुद गद्धारो और कमजोरियों को इतिहास से निकाल दें.
फिल्म में किरदार निभा रही एक अभिनेत्री को वेश्या कहना हमारी संस्कृती नही. नारी सम्मान की सबसे बडी प्रतीक 'मां पद्मीनी' के अनुयाई विरोध करते वक्त भी यह खयाल रखें की नारी सम्मान के खातिर ही उन्होने 'जोहर' किया था...निहत्थों पर वार करना हमारी सीख नही और न्याय रहित निर्णय करना राजपुतों की परंपरा नही.

 ~ कपिल सिंह चौहान
+91 9407117155

16 August 2017

आओ‌, इस स्वतंत्रता दिवस इतना तो करें..



        "प्रशस्ति पत्र प्राप्त, सम्मानित सभी अधिकारीयों कर्मचारीयों को बहुत बहुत बधाई"

बधाई इसलिये, की जिन शासकीय अधिकारीयों व कर्मचारीयों ने स्वतंत्रता दिवस समारोह में जिलाधीश महोदय, विधायक महोदय, जिला पंचायत अध्यक्षा व एसपी महोदय से देश की आन‌_बान_शान- हमारे राष्ट्र ध्वज तले "प्रशस्ति पत्र" प्राप्त किये हैं, मुझे उम्मीद है की उन्होने कभी भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी नही की होगी... और अगर की है तो उस पवित्र-मंच पर अगली बार मत चढिएगा...क्योंकी आप इस लायक नही है, अथवा भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी छोड दिजियेगा... चाहे प्रशस्ति पत्र देने वाले हों या लेने वाले...

     आहां... भ्रष्टाचार करते रहिये, यदि मन ना माने तो... मगर क्या है की राष्ट्रध्वज तले कम से कम सम्मानित हो कर समाज व आने वाली पिढी के आदर्श मत बनिये... आदर्श सिर्फ उन्हे बनना चाहीये जो वास्तव में उसके हकदार हों...
 
        गलती से भी किसी भ्रष्टाचारी को स्वतंत्रता समारोह के पवित्र प्रांगण में, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के भेस में मौजुद नन्हे मुन्ने, किशोर बालक बालिकाओं ने सम्मानित होते देख लिया तो वे सम्मानित होने वाले भ्रष्टाचारी को ही अपना आदर्श मान लेंगे...
         उन कोमल हृद्यधारी नवांकुरों के मन में क्या यह बात नही आयेगी की सम्मानित होना है तो " इन भ्रष्टाचारी अंकल जैसा बनना पडेगा, क्योंकी भगत सिंह, राजगुरु के चरीत्र को अपनाया तो फिर मंच भारत-माता की गोद होगा और सर पर तिरंगे की जगह फांसी का फंदा... तो फिर वह नन्हा आसान राह चुनेगा... वह अपने आदर्श शा.बा.उ.मा.वि. प्रांगण में से तय कर लेगा, उनमे भी उन्हे जो मंच पर चढकर प्रशस्ति पत्र लेते हैं या देते हैं...
          तो ऐसे में हम और आप क्या कर सकते हैं ? यदि हम सम्मानित होना चाहते हैं तो भ्रष्टाचार छोड दें.... मान लिजिये की वह हमारी रग-रग में बस चुका है तो फिर सम्मानित होना छोड दें... थोडे पिछे सरक जायें... उन लोगों को खोजें जो वाकई सम्मानित होने के हकदार हैं... जो वाकई अभी भी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, विवेकानंद व अन्य महापुरुषों जैसे हैं थोडे थोडे... उन्हे आगे आने दें.. वरना आदर्श तो भ्रष्टाचारी अंकल हो जायेंगे तो , शहीदों को कोन पुछेगा फिर...    है ना.. आओ, इस स्वतंत्रता दिवस इतना तो करें...

                  "स्वतंत्रता दिवस की हार्दीक बधाई व शुभकामनाएं"
आपका ‍~ कपिल सिंह चौहान 
+91 9407117155




24 July 2017

सौ चुहे खा कर तो बिल्ली भी हज को चले जाती है, आप कब हज पर जा रहे हैं महाशय !!




अब जब टमाटर 40/- पार बिक रहा है तो मैं नासमझ समझ रहा हूं की "किसानों को उनकी फसल का उचित दाम" मिल रहा है ...
अरे, जब हम 40/- में खरीद रहे हैं तो दे दो ना किसानो को 25/- का भाव
... मगर नही ये टमाटर भी किसानो ने तो 3/- रुपये किलो में ही बेचा होगा
गरीब और मध्यम वर्गीयों के टेक्स के रुपयों से 2/- का प्याज 8/- में खरीद कर फिर व्यापारी को 3 रुपये 10 पैसे में बेचने वाली सरकार धन्य है.. 3 रुपये 10 पैसे में भी लालची, मक्कार, फकीर, सरकारी अधिकारी कमीशन ले रहे है.. एक का वीडीयो वायरल हुआ तो उसकी नौकरी गई.... ये ढांढे भ्रष्टाचारी अफसर नही जानते के शास्त्रों में लिखा है की भ्रष्टाचार से की गई कमाई से कीडे......... उल्टी दस्त हेजा ...... बच्चे विक..... सॉरी दिव्य... खून की ...
हा हा हा :) :) :) कैसे समझाउं इन मक्कारों को...लानत है इन भ्रष्टाचारीयों पर...
 
मृतक नामांतरण तक का पैसा रिश्वत में देना पडता है किसान को... इसकी हाय किसे लगेगी... पात्र गरीब को बीपीएल राशन कार्ड बनवाने में इतना कष्ट है जितना 9 माह में बच्चा पैदा करने में नही होता होगा और 5 जनसुनवाई में जाना अलग .. वहीं अपात्र लोग (जो गरीब नही हैं ) बी पी एल का राशन ले रहे हैं... गरीबों का हक खा रहे हैं...ज़मीर मर चुका है... सरकार बस उन्हे खुश करती है जो ज़्यादा की तादाद में नाराज हों... किसान नाराज तो मरने वाले को एक करोड... एक करोड माने इतना पैसा, मुख्यमंत्री बनने से पहले शिवराज सिंह चौहान ने खुद नही देखा होगा... किसका पैसा है ये ... ये मेरा और आपका पैसा है... पिप्लिया मण्डी में जिन व्यापारीयों के यहां आग लगाई गई क्या उनके परिवार में से भी किसी का मरना ज़रुरी हैं ? क्या तब उनके परिवारों के बारे में सोचा जायेगा...
 

क्या इस राज्य में सम्मान से रहने के लिये मरना ही ज़रुरी हैं... अपनी नाकामीयों को छुपाने का मुआवजा एक करोड कैसे तय कर सकती हैं सरकार !!!
लोक सेवा प्रबंधन के नाम पर सरकार से मूल भुत दस्तावेजों को प्राप्त करने पर शुल्क लगाने वाली सरकार के मुखिया को अब यह कहना पड रहा है की हम फलां समय से फलां समय तक खाता-खसरा की नकल मुफ्त देंगे... नब्ज़ पकड में तो आई मगर इलाज नही...खसरा मुफ्त में नही चाहीये...


सर भ्रष्टाचार मुक्त चाहीये राज्य... अफीम काश्तकारों के पास ज़मीन ना हो और अपने भाई की ज़मीन पर पट्टा लेना हो तो लीगल डॉक्युमेंट्स में 4 हज़ार रुपये खर्च हो जाते हैं... नार्कोटीक्स कार्यालय में जाने के पूर्व नार्कोटीक्स द्वारा तय मुखिया 60 हज़ार रुपये प्रति किसान ले के अधिकारीयों को चढाता है तब पट्टा मिलता है,और पैसे ना दो तो पट्टा नही मिलता... ना ही यह पता चलता है की पट्टा काटा क्यों गया... और हुकुम से पूछ लो के मुझे पट्टा क्यों नही मिला तो फिर सात पीढीयों तक पट्टा नही मिलेगा...

 
सडक बनाने वाले ठेकेदार को भूमी पूजन का खर्च तो उठाना ही है साथ ही उसी दिन माननीय विधायक जी के नाम का लिफाफा भी आपकी सरकार का अधिकारी दाब लेता है, फिर अपना हिस्सा निकाल कर विधायक जी तक वह लिफाफा पहुचा देता है... इसके बाद लोकार्पण तक का सारा खर्च वहन करते हुए अपने काम की अंतिम किश्त पाता है ठेकेदार... अब विधायक जी किस मूंह से पुछेंगे के भय्या दो चार महिने में ही नई सडक का कचुमर कैसे निकल गया...
मैं भी ऐसे बता रहा हूं जैसे की मुख्यमंत्री जी को कुछ पता ही ना हो... हालात बहुत गंभीर हैं... मैं कहता हूं, सौ चुहे खा कर तो बिल्ली भी हज को चले जाती है... आप कब हज पर जा रहे हैं महाशय !! 

~ कपिल सिंह चौहान

+91 9407117155

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